मेरा अनुभव – पहली बार कुलदेवी माँ के मंदिर जाने का!

हां, तो बात तब की है जब में इंजीनियरिंग के दूसरे साल में था (साल २००९)| परिवार मेरा मुंबई में था किन्तु पढ़ाई के हेतु में मुंबई से अहमदाबाद अकेले आया था| इंजीनियरिंग का पहला साल ठीकठाक ही रहा था क्योंकि मैंने पूरा साल हास्टल में निकाला था| दूसरे साल के शुरू होते ही मैंने मेरे दोस्त के साथ हास्टल छोड़ने का निर्णय किया और में, मेरे दोस्त के साथ, दोस्त के ही किसी रिश्तेदार के घर पर पेइंग-गेस्ट के तौर पर हमने रहना पसंद किया|

वह इलाका अहमदाबाद शहर का सबसे केन्द्रीय और पुराना विस्तार कालुपुर था| वहाँ अभी भी गुजराती लोगों ने अपने तौर तरीके, संस्कार और अस्मिता बनाए रखी है, जिसने मुझे काफी प्रभावित किया था| मुझे इसीलिए मेरी रहने की नई जगह धीरे-धीरे पसंद आने लगी थी| में खुद भी इनसानी पसंद आदमी हूँ इसलिए लोगों जुड़ना और उनसे मिलकर उनकी बातों से विशेष अनुभव ग्रहण करना मेरा निजी स्वभाव रहा है|

अहमदाबाद में मेरे पिताजी का परिवार काफी बड़ा है और तब में हास्टल में नहीं रहता था इसीलिए पढ़ाई के बाद एक स्वतंत्रता होती थी तो उस क्षणों का उपयोग करते हुए में अहमदाबाद में बसे परिवार के साथ बिताकर करने लगा| अहमदाबाद में बसा मेरा परिवार के सदस्यों ज्यादातर व्यवसायी है और हर एक की अपनी ओफिस थी जहां मुझे जाना अच्छा भी लगता था और वहाँ पर बैठकर मुझे कई सरे विषयों पर चर्चा और बातें करने का अवसर मिलने लगा|

फिलहाल हम वैष्णव परम्परा से जुड़े हुए है और हमारे परिवार का झुकाव शक्ति पीठ और माताजी की सेवा-अर्चना करने से विपरीत है पर फिर भी जितना हो सकता है उतना करने में किसको कोई झिजक नहीं होती है| धीरे-धीरे मुझे मेरी कुलदेवी की तरफ झुकाव बढ़ना शुरू हो गया था और में कुछ न कुछ मेरे परिवार के सभ्यों से कुलदेवी के बारे में बातें करते रहता था| उस वक्त भी मेरे लिए अचानक से बढ़ता हुआ कुलदेवी की तरफ झुकाव मेरी समझ के परे था! पर मेरे लिए कुलदेवी की बातें सिर्फ और सिर्फ अन्य विषयों जैसा एक जिज्ञासा वश एक विषय ही था! न उससे बढकर न उससे कम|

मेरा मिलना-झुलना मेरे परिवार के साथ बढे जा रहा था उसी वक्त जाने-अनजाने में, कालुपुर, जहां पर में रह रहा था वहाँ पर भी नए लोगों के साथ जुडकर एक छोटा सा परिवार बना रहा था| उनमें से एक महाजन थे “बाबा काका”! उनका नाम तो वैसे मुझे अभी भी ज्ञात नहीं है पर वहाँ पर सब उनको बाबा काका कहकर बुलाना पसंद करते थे! वे कुछ पचहत्तर ७५ साल के वरिष्ठ महाजन थे पर उनमें अभी भी ३० साल के युवा जितनी जीने की अभिलाषा और ऊर्जा भरी पड़ी थी| बाबा काका के लिए में एक युवा तो था पर उनको मेरी जिज्ञासु प्रकृति से काफी लगाव हो गया था| वे खुद जैन धर्म के कड़े अनुयायी थे और बड़े ही चुस्त पर उनको दुनियादारी की समझ अपने अनुभव से भी ज्यादा थी!

एक दिन में, बाबा काका, और अन्य मित्र गण, संध्याकाल के समय चौराहे में जमा होकर गप्पें हांक रहे थे और तभी अचानक से बाबा काका ने मुझसे पूछ लिया की, “कमल, तुम्हारी कुलदेवी कौन है?” फिर मैंने भी कहा की गुजरात के पोरबंदर जिले में स्थित माँ हरसिध्धि मेरी कुलदेवी है | (गुजरात में माँ हरसिध्धि का शक्ति पीठ मंदिर, विश्व प्रसिद्ध श्री कृष्ण की द्वारिका नगरी से तकरीबन १०० किलोमीटर की दूरी पर कोयला नामक पर्वत पर स्थित है|)

बाबा काका ने फिर आगे सिर्फ उतना पूछा की, क्या में कभी कुलदेवी के दर्शन करने गया हूँ? तो उसके उत्तर में मैंने जो था वही कहा की, जी नहीं! फिर शाम होते हम सब अपने घर आ गए और जैसे ही मैं अकेला पड़ा की मुझे तुरंत ही ख्याल आया की आज बाबा काका ने अचानक से ही कुलदेवी वाली बात क्यों कही? में ज्यादा सोच नहीं रहा था पर यह सब मुझे किसी दैवी संकेत जैसा लग रहा था| में जानता था की माँ मुझे अपने पास बुलाने के हर तरीके को अपना रही है|

उस वक्त मेरे पास उतने पैसे नहीं होते थे की में अहमदाबाद से पांचसो ५०० किलोमीटर दूर किसी मंदिर के दर्शन करने जाऊँ! और मुंबई में घर की परिस्थिति भी उतनी तंग थी की ज्यादा पैसे मांगने मुझे अच्छे नहीं लगते थे! धीरे-धीरे समय निकलने लगा! एक महीना, दो महीना और बिच-बिच में बाबा काका मुझे कुलदेवी ले दर्शन जाने को कहते रेहते थे| पर आर्थिक मजबूरी को में किसी के सामने रखना नहीं चाहता था इसलिए कोई न कोई बात समझा-बुझा कर में उत्तर देने से पीछा छुड़ा लेता था|

उसी के बाद कुछ एक दो महीने बीते और एक दिन में कालेज से घर वापस आ रहा था और बाबा काका ने मुझे देखा और अपने पास बुलाया| में कुछ बोलने जाऊँ उससे पहले ही उन्होंने मुझसे कहा की, “ये बता की तू कुलदेवी के मंदिर कब जाएगा?”, और मैंने हर बार की तरह जवाब देने को टालने की कोशिश कर हि रहा था की उन्होंने अपने जेब से १००० रुपये की नोट निकाली और मेरे हाथ में रखी!

मेरे लिए वह क्षण बहुत ही अवर्णनीय था| मैंने बहुत कोशिश करी की में पैसे वापिस करूँ पर बाबा काका नहीं माने और उन्होंने हँसते-हँसते कहा की, “अब इससे ज्यादा मत मांगना, और आज के आज ही कुलदेवी मन्दिर जाने के लिए निकलना”.

मुझे अभी भी समझ नहीं आ रहा है की में उस क्षण किस अवस्था में था! एक तरफ कुलदेवी के दर्शन करने की तडप उठे जा रही थी और एक तरफ मदद मिल रही थी| मैंने फिर उनको मना नहीं किया और बाबा काका को धन्यवाद शब्दों से न करते हुए मैंने उनके पैर छुए और उनके आशीर्वाद लेकर मैं दौड़ते हुए घर आ गया!

अहमदाबाद से माँ हरसिध्धि मंदिर जाने के लिए दो व्यवस्था है!

१. सौराष्ट्र मेल जो अहमदाबाद से रात के ८ बजे निकल जाती है!

२. अहमदाबाद एस.टी. बसस्टेण्ड से रात के साड़े-नौ बजे की बस! सुबह ६ बजे बस पोरबंदर शहर के बसस्टेंड पहुँच जाती है और वहाँ से मंदिर कुछ ४० किलोमीटर की दूरी पर है तो वह सफ़र भी लोकल बस से हि करना पड़ता है! माताजी की सुबह की आरती का समय ९ बजे का है तो जल्दी से जल्दी पहुँचना ही बेहतर है!

उस वक्त शाम के साड़े-सात बज रहे थे इसीलिए ट्रेन का विकल्प मेरे लिए नहीं था क्योंकि अगर होता भी तो ट्रेन छुट जाती इसलिए मैंने बस से ही जाना उचित समझा!

माताजी ने बाबा काका से १००० रुपये की व्यवस्था करवा दी थी वही से मेरा पहली बार कुलदेवी के मंदिर जाने का सफर शुरू हो गया था! में नौ ९ बजे अहमदाबाद बसस्टेंड आ गया और नियत समय पर बस आई और में बैठ गया!

बस में मेरे बगल में दो सीटें और थी जिसपर मेरी ही तरह दो युवा बैठे थे! वे दोनों बैंक की परीक्षा की तैयारियां कर रहे थे! पर जैसे हि में बैठा तो मेरे दोस्त का फोन आया और मैंने बिना बतलाए तुरंत हि निकलने की वजह बताई और कुछ अन्य बातें और की और फिर मैंने फोन रखा!

अब फोन पर मेरी बाते सुनकर वे दोनों युवा जिज्ञासा वश मुझसे औपचारिक रूप से बातें करना शुरू की! थोड़ी देर में मेरा उनपर प्रभाव बढ़ते जा रहा था वह मुझे समझ आ रहा था पर मेरा मन तो अभी भी मंदिर जाने की तरफ था| अब टिकट मास्टर आये और मैंने १००० रुपये की नोट निकाली तो मास्टर ने कहा की इतनी बड़ी नोट! तो मैं कुछ भी बोलूँ उसके पहले ही वह दोनों युवा ने मेरी टिकट ले ली थी! में काफी शर्मिंदगी में था पर वह दोनों ने मुझे ज्यादा देर तक शर्मिंदगी में नहीं रखा और में और भी आत्मीय महसूस करने लगा उन दोनों के साथ|

मेरी जेब में अभी भी १००० की नोट वैसी की वैसी ही पड़ी थी| बस का सफर हों और हाई-वे पर बस होटल पर न रुके तो क्या ही बस का सफर!!! होटल आया और हम तीनों एकसाथ निचे उतरे| में शौचालय में गया और सोचा की कुछ खाद सामग्री लेकर १००० की नोट के छुट्टे करवा लूँगा और मेरी टिकट का बना उधार उन भाई को वापस कर दूंगा! यह सोचकर बहार आया तो दोनों ने मेरे लिए पहले से हि नाश्ता और चाय लेकर रखा था! मैंने उनके पैसे वापिस लौटने की बहुत कोशिश की पर उन्होंने वे लेने से मना ही कर दिया| (गुजरात मैं इस तरह से अनजाने लोगों के द्वारा मिली गई मदद का कोई बुरा मतलब नहीं निकलता है और हम गुजराती इस तरह की मेहमान नवाजी का दिल से स्वागत करते है|)

हम सब वापिस बस में चढ़े और मुझे अन्ततः ज्ञात था की अभी भी वह १००० की नोट वैसे की वैसी हि थी| फिर हमने ढेर सारी बातें करी और देखते-देखते सुबह के ६ बज गए और पोरबंदर शहर आ ही गया!

बस से उतरकर मैंने दोनों हि युवा महाजनों को दिल से धन्यवाद किया और गले लगाकर अपना अभिवादन स्पष्ट किया| मैंने जाते-जाते एक और गलती करी की उन दोनों से हि पूछ लिया की अब हरसिध्धि मंदिर जाने के लिए मुझे बस कब मिलेगी| तो उनमें से एक पास में ही खड़ी एक बस के दरवाजे की तरफ गया और अंदर बैठे टिकट मास्टर से कहा की, “ये भाई को देख लीजिए और इनको माँ के द्वारे उतरना है|”

मैंने वापिस से धन्यवाद किया और बस में बैठा| अब मंदिर आने में कुछ ही देर का वक्त था और मेरी धड़कने अस्तव्यस्त हो रही थी पर मैंने यह भी महसूस किया की आधा घंटा हो गया और टिकट मास्टर अभी भी टिकट के लिए मेरे पास आया नहीं है इसलिए मैं खुद ही मास्टर के पास गया और कहा की मुझे हरसिध्धि मन्दिर तक की एक टिकट दे दीजिये तो उन्होंने कहा की, “आपके पैसे आ गए है और आप चिंता मत करें और बैठ जाइए!!!!”

मैं हक्का-बक्का बनकर रह गया था और जैसे-तैसे सिट पर बैठा और देखते ही देखते हरसिध्धि मंदिर आ गया! मैंने टिकट मास्टर का, धन्यवाद किया और निचे उतरा और दूर से ही पर्वत पर दिख रहे मंदिर के दर्शन किये|

मेरी जेब में अभी भी १००० की नोट दुरुस्त और वैसी की वैसी ही थी!!!

माँ ने मुझे बिना एक रुपया भी खर्च करवाए उनके दरबार तक बुलवा लिया था|

मैंने मेरे परिवार से लेकर, बाबा काका, बस में मिले दो दोस्त और टिकट मास्टर उन सबका निमित्त बनने के लिए दिल से धन्यवाद किया और किसी भी तरह का वह मेरा ईश्वरीय तत्व का प्रथम अद्वितीय अनुभव था!

पता नहीं पर मेरे ये अनुभव से मैंने यह निष्कर्ष निकाला की माँ ने मेरे आने के सारे रास्ते पहले से ही बना कर रखे थे बस मुझे अन्तःकरण से एकदम दृढ़ होकर विश्वास के साथ मंदिर की तरफ निकलने की ऊर्जा ही काफी थी| माँ ने मेरे पास एक भी रुपया खर्च न करवाते वह सारे निष्कर्ष को सच साबित कर चुकी थी|

आप, जिसने मेरे अनुभव को अब तक पढ़ा उसे भी धन्यवाद! और माताजी से आपके सुखी और संपन्न जीवन की प्रार्थना करता हूँ|

||जय माताजी||
ली. कमलम्

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